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रामचरित मानस

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥

सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥3॥


भावार्थ:-कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥3॥


* सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥

कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥4॥


भावार्थ:-वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥4॥


दोहा :

* कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।

गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥103 क॥


भावार्थ:-यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥103 (क)॥


* प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।

जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥103 ख॥


भावार्थ:-धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है॥103 (ख)॥



चौपाई :

* नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे॥

सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥1॥


भावार्थ:-श्री रामजी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मन का प्रसन्न होना, इसे सत्ययुग का प्रभाव जानें॥1॥


* सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥

बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥2॥


भावार्थ:-सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजोगुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष और भय हो, यह द्वापर का धर्म है॥2॥


* तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥

बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥3॥


भावार्थ:-तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर-विरोध हो, यह कलियुग का प्रभाव है। पंडित लोग युगों के धर्म को मन में ज्ञान (पहचान) कर, अधर्म छोड़कर धर्म में प्रीति करते हैं॥3॥


* काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥

नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥4॥


भावार्थ:-जिसका श्री रघुनाथजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥4॥


दोहा :

* हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।

भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥104 क॥


भावार्थ:-श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥104 (क)॥


* तेहिं कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।

परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥104 ख॥


भावार्थ:-हे पक्षीराज! उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षों तक अयोध्या में रहा। एक बार वहाँ अकाल पड़ा, तब मैं विपत्ति का मारा विदेश चला गया॥104 (ख)॥

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